Sunday, 4 October 2020

मुक्तक



जहाँ  थे  पूजते  दुर्गा ,वहीं  अब  बेटियाँ  रोतीं,
दुःशासन चीर को खींचे,सभा में अस्मिता खोतीं।
सँभल जाओ,अभी भी वक़्त है,ऐ!मानवी पशुओं,
दिखे कमजोर जो तुमको,सदा अबला नहीं होतीं।।
               अर्चना द्विवेदी
                    अयोध्या

Wednesday, 30 September 2020

ढाल बनेगी हर बेटी हम

 ढाल बनेगी हर बेटी हम

ऐसा बिगुल बजायेंगे

कामी,हवसी,पापी,वहशी

सबको सबक़ सिखायेंगे


कोमल मन वात्सल्य भरा पर

रौद्र रूप हो काली सा

अगर अस्मिता ख़तरे में तो 

हो प्रहार बलशाली सा

सुप्त चेतना को जागृत कर

सोयी शक्ति जगायेंगे


प्रगति नहीं करता वो अंचल

जहाँ सिसकती नारी हो।

घर-आँगन सड़कों,गलियों में

फैली बस लाचारी हो।।

निडर जियेंगी जहाँ बेटियाँ

हम वह देश बनायेंगे


सुनो बेटियों जंग लड़ो ख़ुद 

नव इतिहास बना डालो

नज़र शिकारी की तुम पर है

सिंह भुजाओं में पालो

हो संहार दानवों का तब

बेटी दिवस मनायेंगे।।

अर्चना द्विवेदी 

      अयोध्या

मम्मी कब स्कूल खुलेंगे???



मम्मी कब स्कूल खुलेंगे

पूछ रहा है लाल,

रास न आये घर का आँगन

कैसे करूँ धमाल??


सुबह प्यार से मुझे उठाती

होता था नाराज,

आज समझ में आया तेरा 

प्यार भरा अंदाज।

मस्ती के दिन कब आएंगे

अब तो यही सवाल।


करते हुए पढ़ाई घर पर

हो जाता हूँ बोर,

जैसे है खो गया कहीं कुछ,

ढूँढ़ रहा चहुं ओर।

संगी साथी सब छूटे हैं

सुने न कोई  हाल।


याद बहुत आता है मुझको

शिक्षा का वह द्वार,

जहां प्यार से देते गुरुजन

विद्या का उपहार।

हे ईश्वर कैसे भागेगा

यह कोरोना काल?


सब नियमों का पालन करके

जाऊँगा स्कूल,

मै भारत का हूं भविष्य ये

कैसे जाऊँ भूल।

पढ़ लिखकर वह काम करूँगा

चमके माँ का भाल।

                    अर्चना द्विवेदी

                         अयोध्या


Tuesday, 19 May 2020

फिर आएगी भोर सुहानी


श्रमिक हुए हैं पाहन  जैसे....
सूखा कमल सरोवर पानी ।
सड़कें,गलियाँ,निर्जन पथ सब ...
मूक सुनाते व्यथा ज़ुबानी...।।

छोड़ गाँव के अपनेपन को,
शहर  गए थे  नीड़  बसाने।
किसको था मालूम कि इक दिन
भटकेंगे सब,छोड़ ठिकाने।
जूझ रहे फूटी क़िस्मत से ,
प्रकृति करे अपनी मनमानी।।

तपती भूमि बनेगी आलय,
जलती  धूप बनेगी  आश्रय।
नन्हें   पुष्प  झुलस  जाएंगे,
जीवन देगा हर पल विस्मय।
पाँवों में  छाले,घोर  निराशा,
छोड़ चले हैं अमिट निशानी।।

भूख-प्यास अब गौड़ हो चुके, 
चौखट  शाला की  पाना  है ।
विस्मृत  हो  जायेंगे  ये  पल,
राह मिले बस घर जाना  है ।
निर्बल मन में है ये आशा.....
फिर आयेगी भोर सुहानी।।
          
   अर्चना द्विवेदी 
अयोध्या

  

Sunday, 10 May 2020

माँ क्या है??


*माँ क्या है??*

माँ प्रेम है,त्याग है,निःस्वार्थ बलिदान है
इस सृष्टि के सृजन की अमिट सी पहचान है

माँ दिन है,रात है,रोशनी का उपमान है।
दिवस में दीपावली,नवरात्रि का सम्मान है।।

माँ वाद है,संवाद है,भाषा की पहचान है।
तोतली मनुहार पर मीठी सी मुस्कान है।।

माँ इत्र है,मित्र है,संबंधों की शान है।
हर उपवन,हर पुष्प, हर देह की जान है।।

माँ आस है,विश्वास है,खुला आसमान है।
टूटे सुरों को जोड़ने की मधुमयी गान है।।

माँ शीतल है,निर्मल है,गंगा सी पावन है।
संस्कृति,संस्कार के हर गीत का गुणगान है।।

माँ अर्पण है,समर्पण है,सारे दुखों का दर्पण है।
आँचल न हो ममता का तो स्वर्ग नर्क समान है।।

माँ दीप है, नैवेद्य है,इष्ट का वरदान है।
महिमा लिखी है वेद में,ऋचा में विद्यमान है।।

माँ भजन है,कीर्तन है,गंगा सी पावन है।
अनमोल एक उपहार है जीवन का अभिमान है।।

माँ पूजा है,अर्चना है,आराध्य का प्रतिमान है।
हैं देवितुल्य माँ सभी सचमुच माँ महान है।।
      अर्चना द्विवेदी

Friday, 8 May 2020

कोई कहता


कोई कहता मुझमें शीतल
चंदा जैसी छाया है।
कोई कहता मुझमें दिनकर
जैसा ताप समाया है।।

किसी में सरिता सी चंचलता
जलनिधि सी गहराई है।
धैर्य धरा सा है अंतस में
अम्बर सी ऊँचाई है।।

कोई कहता मैं ख़ुशबू हूँ
फ़ूलों सी सुंदरता है।
काक नहीं पिक जैसी वाणी
जिसमें बहुत सरसता है।।

सोच रहे सब ही अंतस में
मुझसा कोई श्रेष्ठ नहीं।
सारी दुनिया लघु से लघु है
कोई मुझसे ज्येष्ठ नहीं।।

धरती,अम्बर,चाँद, दिवाकर
का जीवन परमार्थ है।
पर ये मानव बहुत अनूठा
हृदय भरे बस स्वार्थ है।।
     अर्चना द्विवेदी
     अयोध्या

Sunday, 22 March 2020

कोरोना वायरस संकट पर संदेश



आज जनता कर्फ्यू का पालन करके स्वयं को और अपने राष्ट्र को बचायें🙏और मेरे संदेश को जन जन तक पहुचाएं

गीत नहीं कोई लिख पाती
भाव नहीं दे पाती हूँ।
देख विषम हालात जहाँ के
अंतस नीर बहाती हूँ।।

शस्य श्यामला सी ये धरती
वीराने  पर  रोती  है,
पाला जिसको निज आँचल में
अपने सम्मुख खोती है,
रो रोकर कहती हूँ सबसे
हिय का हाल सुनाती हूँ।।

कितने पापी नर पिशाच हैं
अंश ईश का खाते हैं,
संबल हैं जो इस अवनी के
उनको खूब सताते हैं,
ज्ञानी हो पर श्रेष्ठ नहीं तुम
गूढ़ भेद बतलाती हूँ।।

सार्स कभी कोरोना बनकर 
प्रकृति क़हर बरसाती है,
खेल रही है खेल मृत्यु का
मानो  प्रलय  बुलाती है,
आर्य संस्कृति मूल मंत्र है
सच की राह दिखाती हूँ।।

Click here गीत सुनें मेरी ही आवाज में
         
   अर्चना द्विवेदी
           अयोध्या उत्तरप्रदेश

Sunday, 15 March 2020

क्या इसीलिए माँ ने जाया



क्या इसीलिए माँ ने जाया??

जलकर जो दुःख की ज्वाला में
सुख   रूपी  नीर  पिलाती   है।
कुछ भी  खाने  से  पहले  ही
जो  पहला कौर खिलाती  है।
क्यों इस ममता की मूरत का
तुमको न प्यार तनिक भाया।।

किलकारी सुनकर जो तेरी 
क़िस्मत पर ही  इतराती  है।
ये लाल  बुढ़ापे  की  लाठी
हर्षित हिय को बतलाती है।
ठुकराते  हो उस  देवी  को
जिससे पाई  पावन  काया।।

क्यूँ दुखा रहे दिल जननी का
जो तुझ पर जान छिड़कती है।
तेरी  हल्की  सी  सिसकी  से
जो  सौ-सौ बार  तड़पती  है।
किंचित  टूटा   ये  बंधन  तो
फिर नहीं  मिलेगी  ये  छाया।।

संवाद विषैला  क्यों  माँ  से
क्यूँ तिरस्कार  है  माते  का।
हो बहुत  स्वार्थी  भावशून्य
जो मोल  नहीं इस नाते का।
ऐश्वर्य सँजो कर क्या करना
जब साथ न हो माँ का साया।।
      अर्चना द्विवेदी
              अयोध्या

Thursday, 30 January 2020

बसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएं



         सरस्वती वंदना
माँ शारदे की वीणा,झंकार कर रही है
अज्ञान के तमस से,हमें दूर कर रही है

आसन कमल विराजे,शुभ्र वस्त्र धारिणी है
मस्तक मुकुट है साजे,भय शोक तारिणी है

आभा मुखार विंद की,शोभा बढ़ा रही है।
अज्ञान के तमस से,हमें दूर कर रही है।।

मीरा सी भक्ति देना,विषपान भी बने सुधा
दुर्गा सी शक्ति देना,दैत्यों से मुक्त हो वसुधा

वरदायिनी है मैया,वरदान दे रही है।
अज्ञान के तमस से,हमें दूर कर रही है।।

महिमा तेरी है दिखती,रंगों में नजारों में
ज्ञान चक्षु खोलती है,मंदिर में गुरुद्वारों में

जगती बनी जगत को,लीला दिखा रही है ।
अज्ञान के तमस से,हमें दूर कर रही है। ।

मौसम हुआ बसन्ती,कलियाँ भी झूमती हैं
तरु लद गए हैं बौर से,कोयल भी कूकती है

तिथि पंचमी से ऋतु की,सूरत बदलरही है।
अज्ञान के तमस से हमें दूर कर रही है।।
     ।।  अर्चना द्विवेदी अयोध्या।।

Sunday, 12 January 2020

एसिड अटैक पीड़ित बेटी का दर्द


एसिड अटैक पीड़ित बेटी का दर्द...😢😢


सुंदर मुखड़े पर मेरी माँ
लाख बलाएँ लेती थी।
मनमोहक मुस्कान देख वो
मुझे दुआएं देती थी।।

 चाँद से उज्जवल चेहरे पर मैं
 मन ही मन इठलाती थी।
राजकुंवर ही वरण करेगा
सोच हॄदय शरमाती थी।।

घर आई है साक्षात लक्ष्मी
सास ससुर मन चहकेंगे।
स्वर्ग अप्सरा मान के प्रीतम
प्रेम मेघ बन बरसेंगे।।

लेकिन हाय मेरे सपनों को
रौंदा मानसिक विकृति ने।
रूप कुरूप हुआ पल भर में
अश्रु बहाया चिर प्रकृति ने।।

जलते अग्निकुंड में मानो
फेंक दिया हो चीर के।
कैसे व्यक्त करूँ पीड़ा को
शब्द झुलस गये पीर के।।

कौन मुझे अब प्यार करेगा
नहीं बनूँगी मैं दुल्हन।
हर मौसम होगा पतझड़ सा
रंगहीन होगा जीवन।।

कंचन काया हुई भयानक
मन ही मन दर्पण रोया।
सुनो निर्दयी हिंसक नर पशु
धैर्य नहीं मैंने खोया।।

चंद बूँद तेज़ाब की मेरे
स्वप्न जला न पाएगी।
देख हौसला हॄदय का मेरे
पीड़ा स्वयं लजायेगी।।

मात्र विक्षिप्त हुआ तन मेरा
मन तो अभी सुनहरा है।
सुंदर तन का सूर्य अस्त पर
उर में हुआ सवेरा है।।

हे प्रभु!ऐसे मानव पशु को
धरा पे जन्म नहीं देना।
विनती है यदि पिता बने वो
बेटी दान यही देना।।
                   अर्चना द्विवेदी
             अयोध्या उत्तरप्रदेश

   फ़ोटो साभार-गूगल

Tuesday, 7 January 2020

ईश्वरीय कृपा



कभी कभी जीवन में कुछ ऐसा घटित हो जाता है जिससे हमें यह अनुभव होता है कि यदि सच्चे हृदय से कोई कार्य किया जाए तो वह अवश्य पूर्ण होता है फिर चाहे वह ईश्वर को बुलाने का ही क्यों ना हो।

 बात नवंबर 2004 की है मुझे और मेरे छोटे भाई को ट्रेन द्वारा घर जाना था। शाम की ट्रेन थी हम दोनों टिकट लेकर उचित स्थान देखकर डिब्बे में जाकर बैठ गए।यूँ तो हमारा मूल स्टेशन मात्र 25 किलोमीटर की दूरी पर था परंतु कई क्रॉसिंग के बाद ट्रेन करीब रात 7:30 बजे हमारी यात्रा के अंतिम पड़ाव पर पहुंची संयोग वश वहाँ भी क्रॉसिंग थी।
सामने से आने वाली ट्रेन पहले प्लेटफार्म पर रुकी थी इसलिए ट्रेन दूसरे प्लेटफार्म पर रुकी।हमें मजबूरी वश ट्रेन के विपरीत दिशा में उतरना पड़ा।सर्दी का मौसम था कुहरे  ने चारों तरफ अपनी धुँधली चादर फैला रखी थी। दूर-दूर तक रोशनी के नाम पर सिर्फ़ स्टेशन की पीली लाइट जल रही थी।घने अंधेरे में कुछ दिखाई नहीं दे रहा था न मोबाइल,न टॉर्च कुछ भी नहीं था हमारे पास..... क्योंकि स्टेशन पर रुकने वाली गाड़ियों की संख्या बहुत कम थी इसलिए उतरने वाले यात्रियों की संख्या भी गिनी चुनी ही थी। हम दोनों ट्रेन के जाने से पहले ही बिना कुछ सोचे समझे आगे इंजन की तरफ बढ़ गए........
सच कहूँ तो हम दोनों को दिशा भ्रम हो गया था हमें यह नहीं समझ आ रहा था कि स्टेशन आगे है या पीछे।इसलिए बिना समय गंवाए आपस में खुसफुसा कर हमने आगे ही बढ़ने का निर्णय लिया और सामने टिमटिमाते केबिन के बल्ब को जो कि हमसे करीब  500 मीटर की दूरी पर था स्टेशन समझकर तेज कदमों से आगे बढ़ गए।

 याद करके मन भय से काँप उठता है कि घनी अंधेरी सर्द रात जब पशु-पक्षी तक अपने- अपने घरों में दुबके हुए थे,कोहरे की घनी परत,कंपकंपाती शीतलहर में भी,किसी अनहोनी की आशंका से हम दोनों के चेहरे पर भय की बूंदे बिखर गई थीं।
कोई सहारा नहीं दिख रहा था एक उम्मीद के सिवा और वह उम्मीद थी... मेरे बजरंगबली.......
माँ अक्सर कहा करती थी कभी कोई मुसीबत हो तो वीर बजरंगी का नाम लेने से संकट दूर हो जाता है।।
        मैंने अपने भाई का हाथ मजबूती से पकड़ा और कहा डरो मत-- सब अच्छा होगा सिर्फ़ बजरंगबली को याद करो और ईश्वर से मदद करने की पुकार करो।
"भूत पिशाच निकट नहीं आवै महावीर जब नाम सुनावे""यह चौपाई और तेज कदमों की चाल दोनों के सहारे हम करीब 300मीटर दूर आ गए।
बताती चलूँ कि दुर्भाग्यवश हम स्टेशन से दूर होते जा रहे थे एक पल को रुककर दोनों तरफ देखा।वहाँ से दाएं तरफ स्टेशन की लाइट दिखी और बाएं तरफ केबिन की।
भयवश मस्तिष्क काम ही नहीं कर रहा था कि हम किधर जाएं बिना समय गंवाए आसपास की आहट से बेखबर हमने आगे ही बढ़ने का निर्णय किया। तभी अचानक टॉर्च की एक तीखी रोशनी हम दोनों के चेहरे पर पड़ी।.....…..आवाज आई... कहाँ जाना है ???

हमें तो काटो खून नहीं....

अब क्या होगा?? कौन है ये ??

क्या चाहता है हमसे?? कई सवालों के बीच मुँह से सिर्फ एक आवाज़ निकली--- ....स्टेशन...
अँधेरे में न तो चेहरा दिखा ना ही कद काठी पर आवाज़ से ही अंदाज़ा हुआ कोई हट्टा कट्टा नौजवान व्यक्ति ही होगा।

 "तुम दोनों ही गलत दिशा में जा रहे हो स्टेशन तो काफी पीछे छूट गया है।आओ मैं तुम दोनों को स्टेशन तक छोड़ देता हूँ " ....
उस व्यक्ति ने कहा---।
 मरती क्या न करती किसी अनजाने पर यक़ीन करना ठीक तो नहीं लग रहा था, फिर भी हनुमान जी का नाम लेकर हम दोनों उसके पीछे चल दिए स्टेशन पर पहुंचकर स्टेशन मास्टर के कक्ष की ओर इशारा करके बिना कुछ बोले ही वह व्यक्ति आगे बढ़ गया।हम तो इतना डर गए थे कि उसे धन्यवाद भी ना कह सके।
वह व्यक्ति कुहरे के घने अँधेरे में कहीं गुम हो गया।।
कक्ष की ओर बढ़ते ही पापा की आवाज़ कानों में पड़ी तो ऐसा लगा मानो घण्टों की मूर्छा के बाद अचानक ही होश आया हो।
हमें फिर से अपने प्रिय पिता की छाँव मिल गयी थी जहाँ हम स्वयं को सुरक्षित महसूस कर रहे थे।
उस घटना के बाद मुझे पूर्ण विश्वास हो गया कि जैसे सूरज,चाँद, सितारे अटल सत्य हैं वैसे ही ईश्वर का अस्तित्व भी सत्य है।
यदि ईश्वर को पूरी लगन और सच्चे हृदय से याद किया जाए तो वह हमारी सहायता करने जरूर आते हैं।
 सबसे बड़ी बात कि एक पिता का सानिध्य दुनिया का सबसे सुरक्षित स्थान है जो मुझे उस दिन एहसास हुआ........😊 

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