विवाह हमारे सामाजिक जीवन का अभिन्न अंग हैं जो कि उत्सव और खुशियों का प्रतीक है।हर लड़की के जीवन की नई शुरुआत होती है।परंतु आदिकाल से चली आ रही दहेज़ जैसी सामाजिक कुरीति ने,धन के लालच,लोभ ने जाने कितनी ही बेटियों को एक लाचार पिता माता से छीन लिया है।यही कारण है कि आज भी निर्धन पिता दहेज़ के आगे बेबस और मौन है।तो क्यों न हम आज से ही दहेज़ लेने और देने दोनों का विरोध करें और अपनी प्रिय बेटियों को बचाने का संकल्प करें...
आहों से भरी सिसकी सुनकर,
मेरी आँखें भर आयी हैं ।
लाचार पिता -माता ने फिर,
प्रिय बेटी आज गंवाई है ।।
मेहँदी का रंग न छूटा था,
कोमल,नाजुक सी हथेली की।
घर-बार बेचकर अपनों ने,
क़िस्मत में लिखी हवेली थी।।
गुण -रूप ,त्याग की देवी ने ,
छुप-छुप कर रोना सीख लिया।
धन , वैभव और दिखावे ने ,
मानवता चकना चूर किया ।।
वो ममता की पावन प्रतिमा,
कितनी तड़पी तरसी होगी।
खल रूप निशाचर मानव को,
आई न तनिक दया होगी।।
जो स्वप्न सजा लाखों मन में,
पीहर के घर में आई थी।
बिखरे सपने, आशा टूटी वो,
ज्वाला में आज समाई थी।।
अब झुलस रही धन,लिप्सा के ,
दावानल में घर की कलियाँ।
हो रही धरा वीरान सी अब,
बिन लक्ष्मी के सूनी गलियाँ।।
इस दहेज रूपी सुरारि ने,
आदर्शों का संहार किया।
बेटी चहके न आँगन में ,
हर पिता ने यही प्रयास किया।।
ये सोच के मन कंप उठता है,
शायद कल मेरी बारी हो।
मेरी नाज़ुक कली सी बेटी पर,
चलती दहेज़ की आरी हो।।
अब समय नहीं वो दूर रहा,
जब बेटी गोद न खेलेगी।
न मस्तक पर होगा चंदन,
शहनाई द्वार न गूँजेगी ।।
सुन लो दहेज लेने वालों,
इस तांडव का अब अंत करो।
निर्धन कुटुम्ब,लाचार बहु की,
बेबस आहों से डरा करो ।।
जब तक दहेज के दानव का ,
होगा निर्मम संहार नहीं।
अवनी से लेकर अम्बर तक,
होगा नर का उद्धार नहीं।।
।।अर्चना द्विवेदी।।
फ़ोटो:साभार गूगल
बहुत ही यथार्थ व मार्मिक चित्रण।
ReplyDeleteजी आभार आपका
DeleteWell said poem
ReplyDeleteHeart touching words
Thanks alot Gurmail ji
Deleteसच को उजागिर करती हुई यह सामाजिकता पर आधारित कविता
ReplyDeleteधन्यवाद राजेश्वरजी
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