हाँ सच है कि मजदूर हैं हम।
सजते हैं नित्य नए सपने बस,
सुख-सुविधाओं से दूर हैं हम।।
दिन रात परिश्रम करते हैं,
हम झोपड़ियों में रहते हैं ।
महलों को देकर रूप नए,
संतोष हृदय में रखते है।।
हम दंश झेलकर मौसम के,
विपदा में भी मुस्काते हैं
रूखी सूखी रोटी न मिले,
तो खाली पेट सो जाते हैं।।
ये क्षुधा उदर की है निष्ठुर ,
दिन रात परिश्रम हम करते।
वो मेहनत भी क्या मेहनत है??
जो शिशुओं के पेट नहीं भरते।।
हमें तपिश धूप की मिलती है,
तुम्हें शीतल ठंडी छाँव मिले।
हम सेवक हैं तुम स्वामी हो,
इस रिश्ते को कुछ मान मिले।।
इस अर्थ विषमता ने हमको,
कितना बेबस, लाचार किया।
स्वार्थी बनकर हर रिश्तों ने,
मुश्किल में दामन छुड़ा लिया।।
सुख,वैभव के सामान नहीं,
हम स्वर्ग बनाते छप्पर में।
हमसे न कोई दुर्भाव करो,
हम जान डालते पत्थर में।।
अभाव भरा जीवन जीते,
तेरे आँखों का आँसू पीकर।
कुचले जाते फुटपाथ वही,
जहाँ स्वप्न सजाते हम मिलकर।।
तुम पर्व मना कर सालों से,
हमें दया का पात्र बनाते हो।
बस छीन रहे सम्मान मेरा,
और झूठे दंभ दिखाते हो।।
सुन लो सुख भोगी इंसानों,
हम भी ईश्वर की संतानें।
जब लहू,रूप सब एक ही है,
तो अर्थ विषमता क्यों ठानें??
।।अर्चना द्विवेदी।।
फ़ोटो:साभार गूगल
Great thought....
ReplyDeleteThanks हिमांशु जी
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