श्रमिक हुए हैं पाहन जैसे....
सूखा कमल सरोवर पानी ।
सड़कें,गलियाँ,निर्जन पथ सब ...
मूक सुनाते व्यथा ज़ुबानी...।।
छोड़ गाँव के अपनेपन को,
शहर गए थे नीड़ बसाने।
किसको था मालूम कि इक दिन
भटकेंगे सब,छोड़ ठिकाने।
जूझ रहे फूटी क़िस्मत से ,
प्रकृति करे अपनी मनमानी।।
तपती भूमि बनेगी आलय,
जलती धूप बनेगी आश्रय।
नन्हें पुष्प झुलस जाएंगे,
जीवन देगा हर पल विस्मय।
पाँवों में छाले,घोर निराशा,
छोड़ चले हैं अमिट निशानी।।
भूख-प्यास अब गौड़ हो चुके,
चौखट शाला की पाना है ।
विस्मृत हो जायेंगे ये पल,
राह मिले बस घर जाना है ।
निर्बल मन में है ये आशा.....
फिर आयेगी भोर सुहानी।।
अर्चना द्विवेदी
अयोध्या
बहुत शानदार कविता दीदी धन्यवाद।
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