अल्फ़ाज़ बूढ़ी माँ के अब लब पे ठहर गए,
आते नहीं क्यूँ लौटकर , जो हैं शहर गए।
आया शहर से ख़त तो थी रुख़सार पर नमी
क्या ख़ैरियत से हो तुम ? जाने किधर गए।
मेरी परवरिश में कोई कमी रह गयी थी क्या
पूछा न हाल-ए -दिल मेरा जबसे शहर गए।
आँचल की मेरे छाँव में तुम , दिन रात थे महफ़ूज़
मगर इस शौक-ए-आलम से,तेरे जज़्बात मर गए।
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चूमकर आँसूं को तेरे ,तुझे मैं हर पल हँसाती थी,
ख़्वाहिशें अब नहीं बाक़ी मेरे सपने बिखर गए।
तुझसे अरमान कितने थे तसव्वुर में मेरे बेटे,
नहीं शिकवा गिला कोई तेरे सपने सँवर गए।
रही उम्मीद न कोई ,न साहिल का सहारा ही
ग़म-ए-दिल को छुपाये यूँ ही अरसे गुजर गए।
माँ-बाप की दुआओं से ही नेमत है ज़िन्दगी में
क़द्र कर ली माँ की जिसने,वही दिल में उतर गए।
।। अर्चना द्विवेदी।।
फ़ोटो:साभार गूगल
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