हर रूठी नजरों का सामना,
मैं कैसे करूं?कुछ तो बोलो-
क्या बेटी होना है गुनाह?
विष व्याप्त रूढ़ियों को तोड़ो।
महकी जब उपवन में तेरे,
खुशियाँ न मंगलगान कहीं
चेहरे पर खिंची दुख की रेखा,
होठों पर हंसी मुस्कान नहीं।
मन निश्छल है, तन कोमल है,
बस द्वार हृदय के तुम खोलो।
कुलदीप नहीं तेरे आंगन की,
यह बात अखरती है तुमको।
दो कुल में उजाला है मुझसे,
एहसास नहीं है क्या तुमको।
यह लिंगभेद की मलिन सोच
पावन गंगा में अब धोलो।
जब सूरज भेद नहीं करता,
अपनी किरणें फैलाने में।
ईश्वर दो सोच नहीं रखता ,
अपनी कृपा बरसाने में।
फ़िर तू! तेरी औकात है क्या?
यह नियम सृष्टि का मत तोड़ो।
(अर्चना द्विवेदी)
मैं कैसे करूं?कुछ तो बोलो-
क्या बेटी होना है गुनाह?
विष व्याप्त रूढ़ियों को तोड़ो।
महकी जब उपवन में तेरे,
खुशियाँ न मंगलगान कहीं
चेहरे पर खिंची दुख की रेखा,
होठों पर हंसी मुस्कान नहीं।
मन निश्छल है, तन कोमल है,
बस द्वार हृदय के तुम खोलो।
कुलदीप नहीं तेरे आंगन की,
यह बात अखरती है तुमको।
दो कुल में उजाला है मुझसे,
एहसास नहीं है क्या तुमको।
यह लिंगभेद की मलिन सोच
पावन गंगा में अब धोलो।
जब सूरज भेद नहीं करता,
अपनी किरणें फैलाने में।
ईश्वर दो सोच नहीं रखता ,
अपनी कृपा बरसाने में।
फ़िर तू! तेरी औकात है क्या?
यह नियम सृष्टि का मत तोड़ो।
(अर्चना द्विवेदी)
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