जियरा हुलसै जैसे सावन की बदरिया
चला हो सखी झूलि आई न
चम-चम चमके मोरी धानी रंग चुनरिया
चला हो सखी झूलि आई न
बागा मोर पपीहा बोले ,
सुनिके मनवा मोरा डोले
महके सोंधी माटी,बहै जब बयरिया
चला हो सखी झूलि आई न
झूला परिहैं कदम्ब की डारी
झुलिहैं मिलिके सखियाँ सारी
करिहैं हँसी ठिठोली,गैइहैं जब कजरिया
चला हो सखी झूलि आई न
झूला छुहिएँ गगन अटारी
हरषहिं राधा कृष्ण मुरारी
आपन गऊवां लागी देवतन कै नगरिया
चला हो सखी झूलि आई न
जब से छूटल मोरा नैहर
शहर बसे हैं जाईं के पीहर
नीक लागे नाही हमका शहरिया
चला हो सखी झूलि आई न।
अर्चना द्विवेदी
फ़ोटो:साभार गूगल
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