पढ़िये भगवान शिव के सोलह पवित्र नामों से युक्त शिव की आराधना
करती हूँ गुणगान मैं भोले शम्भू ,शंकर नाथ की। वेदों और पुराणों में है महिमा महाकाल की।। सृष्टि सृजन के आदि स्रोत ये ज्योतिष के आधार हैं। सौम्य प्रकृति व रौद्र रूप लय-प्रलय महासंहार हैं।। शशिशेखर ,शिव एक तपस्वी गले वासुकि की माला। भस्म लेप श्रृंगार है अतिप्रिय पिए हलाहल विष प्याला।। पति परमेश्वर आदिशक्ति के नीलकण्ठ हैं धारी । हुआ वियोग सती माता का किया तांडव भारी।। वज्र, कृपाण, पाशु हैं आयुध पशुपति,कैलाशी शिव के। ज्ञान ,साधु , वैराग्य , त्याग, कइ रूप कपर्दी ,गिरिप्रिय के।। मंत्र-ध्यान प्रिय बिल्वपत्र से मोक्ष मार्ग खुल जाता है। मृत्युंजय के नाम मात्र से पाप -दोष धुल जाता है।। हे !सुरसूदन , हे! परशुहस्त ये भेंट मेरी स्वीकार करो। शाश्वत सत्य देव अज रूपी तारक अंगीकार करो।। ।। अर्चना द्विवेदी।। फ़ोटो:साभार गूगल एक प्रयास अपनी बोली अवधी में पढ़िए- कजरी
जियरा हुलसै जैसे सावन की बदरिया चला हो सखी झूलि आई न चम-चम चमके मोरी धानी रंग चुनरिया चला हो सखी झूलि आई न बागा मोर पपीहा बोले , सुनिके मनवा मोरा डोले महके सोंधी माटी,बहै जब बयरिया चला हो सखी झूलि आई न झूला परिहैं कदम्ब की डारी झुलिहैं मिलिके सखियाँ सारी करिहैं हँसी ठिठोली,गैइहैं जब कजरिया चला हो सखी झूलि आई न झूला छुहिएँ गगन अटारी हरषहिं राधा कृष्ण मुरारी आपन गऊवां लागी देवतन कै नगरिया चला हो सखी झूलि आई न जब से छूटल मोरा नैहर शहर बसे हैं जाईं के पीहर नीक लागे नाही हमका शहरिया चला हो सखी झूलि आई न। अर्चना द्विवेदी फ़ोटो:साभार गूगल
शब्द नहीं उस पिता के दर्द को लिख सकूँ...😢क्या लिखूँ उस पिता के मनोभावों को जिसके विश्वास और प्रेम को ह्रदय के टुकड़े ने ही तोड़कर रख दिया हो।।सोचती हूँ क्या पल भर का आकर्षण वर्षों के स्नेह,त्याग,और तपस्या पर इस क़दर हावी हो जाता कि परिवार की मान मर्यादा को तोड़ने में तनिक संकोच नहीं लगता.... पढ़िए इसी संदर्भ में एक पिता के दर्द से भरी मेरी नई स्वरचित कविता पी-पीकर अपमान घूँट के पिता व्यथित हो रोया है, घर की लज्जा, मर्यादा ने मान , नाम सब खोया है। सौ-सौभाग्य प्रबल थे मेरे जब बेटी गोद में पाया था, माँ ने सखी,हृदय को संबल फूला नहीं समाया था ।। पढ़े-बेटियाँ , बढ़े -बेटियाँ जैसे स्वप्न को पूर्ण करूँगा, शिक्षा-दीक्षा संस्कार में किंचित पीछे नहीं हटूँगा।। दो कुल का तटबंध बनेगी गौरव ,मान .... बढ़ाएगी, आदर्शों की प्रतिमा बनकर सदा, हँसे......मुस्कायेगी। क्या चंद पलों का आकर्षण?? इतना हावी हो जाता है, वर्षों की प्रेम....तपस्या का न अर्थ कोई रह जाता है???? मैं बदहवास,माँ गुमसुम है, लाचार हुआ घर का चिराग। किससे कहूँ मन की व्यथा? पसरा है रिश्तों में विराग।। सर झुका मेरा सम्मान भरा सब अजब दृष्टि से देख रहे पालन-पोषण,अति आजादी पर कटुक वचन है फेंक रहें।। हे ईश्वर!ऐसी बेटी का अब पिता बनाना मत मुझको, इस अनुपम स्नेह के बंधन की अब लाज बचाना है तुझको। क्या शब्द लिखूँ कुछ रहा नहीं एक पिता का दर्द बताने को बेटी हूँ मैं, अति लज्जित हूँ कुछ रहा नहीं समझाने को। एक बेटी ने ही बेटी के अस्तित्व पे प्रश्न उठाया है, परप्रेम के मोह में बन स्वार्थी रिश्तों का मोल घटाया है।। न माफ करूँगी मैं तुझको न ही कोई .. समझायेगा , पल भर का गलत फ़ैसला ही जीवन भर तुझे रुलाएगा। कर दिया कलंकित जननी को बेटी पे रहा विश्वास न अब, हर बेटी से विनती..... मेरी कुछ लोक लाज का मान तू रख। मत भूल भारतीय संस्कृति को जहाँ नारी पूज्य सी प्रतिमा है, संकोच, त्याग और शील,स्नेह से निखरी सदैव गरिमा है।। ।।अर्चना द्विवेदी।। फ़ोटो साभार:गूगल मेरी अन्य कविताएं पढ़ने के लिए क्लिक करें पापा मैं पराई नहीं मैं नारी हूँ
नहीं काम की वो सुंदरता, रंग लगा हो उथलेपन का। व्यर्थ है वो सारी आकुलता, जिसमें मर्म न अपनेपन का। अर्थ न कोई प्रेम भाव का, कवच चढ़ी हो नफ़रत की। नहीं मिलेगी उसको मंज़िल, चाह जिसे हो ग़फ़लत की।। क्या करना इस सुंदर तन का, लुभा सके जो केवल ही तन। मन से मन का तालमेल हो, तभी सफल होगा ये जीवन।। कल न होगा तन ये सुंदर, पर सुंदर मन साथ रहेगा। एकाकीपन का बन साथी, अंतिम क्षण तक साथ चलेगा।। ।। अर्चना द्विवेदी।। मेरी अन्य कविताएं पढ़ने के लिए क्लिक करें बसन्त ऋतु का स्वागत सच्ची चाहत भारत मेरा घर