खिलेंगे फूल मुहब्बत के गर चमन के लिये,
न कोई हादसा गुजरे यहाँ अमन के लिये।
भटक रही है जो गलियों में इक निवाले को,
कहाँ से लाएगी कपड़े वो फिर बदन के लिये।
नसीब उनके भी होते हैं जिनके हाथ नहीं,
लकीरें मायने रखती नहीं लगन के लिये।
गुरुर है जिसे हवेलियों की शौक़त पर,
वो मुनासिब नहीं है यार अंजुमन के लिये।
मिली है चार दिन की ज़िंदगी न ज़ाया कर,
बहा दे खून जवानी ज़मी वतन के लिये।
ज़रा सा देखिये मायूसियाँ निगाहों की,
कि जिनके लाल तरसते रहे कफ़न के लिये।
अर्चना द्विवेदी
अयोध्या
19/01/22